पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५९१

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2 प्रिय, लो, डूब चुका है सुरज । प्रिय, लो, इव चुका है सूरज, न जाने कब का। वचन तुम्हारा भग हुआ है, न जाने कब सान्ध्य-मिलन के आश्वासन पर कार्टी, घडियो दिन की, बडे चाच से हमने जोही बाट साझ के दिन को । दिन की मेघ-विलास-वेदना, किसी तरह सह साली, इसी भरोसे कि तुम साँझ को माओगे बनमाली । सन्ध्या हुई, अंधेग गहरा हुआ, मेघ गैडराये, गहन तमिमा ने आमर सीगुर नूपुर शनवाये। अव भी आ जाओ, देखो तो, पितनी गुदर पेला, अन्धकार लोगोपचार को, और चला अलबेला। पर पकिल है, पितृ पूय है, नही जगज्जन मेल अॅधियाले मे सड़ा हुआ है, मम मन-दन भने । ऐसे समय पधागे साजन, छोट भरग सर का देशो भूय सुधा है सूरज, न जाने कब का शून्य भवन में सजग संजोयी, मैंने दीपन स्थर मेघमाला ने ली है अपर मैं लुप्त हो गयी आधार म, नभ पी निबिंड तिमिर में पड़ी हुई हैं, जग-मग क रितु तुम्हें ममेरा-दान हित, मेरा घर माओंगे तो तुम देखोगे, प्रहरी यहाँ वयो न आज तुम लिय लहुटिया, यौन मयो न चरण-प्रधान हित मग दृग-शारी ५५१