पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५९३

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1 प्रिय, लो, डूब चुका है सूरज । प्रिय, लो, दूब चुका है सूरज, न जाने काव या वचन तुम्हारा भग हुआ है. + गाने क्व का। सान्ध्य मिलन के आश्वासन पर काटी, घटियाँ दिन की, बड़े चाव से हमने जोही वाट साझ के दिन को। दिन की मेघ विलास-वेदना, किसी तरह राह झाली, इसी भरोसे कि तुम सांझ को आओगे वनमाली । मन्न्या हुई, अंधेरा गहरा हुआ, मेघ मंडराने, गहन तमिसा ने आकर हीगुर नपुर झनकाये । अब भी आ जाओ, देखो तो, कितनी सुदर वेला, अन्धकार लोकोपचार को, हाक चला अलवेला। पय पकिल है, किन्तु शून्य है, नही जगज्जन मेला, अँधियाले में खड़ा हुआ है, मम मन-सदन अवोला । ऐसे ममय पधारो माजन, छोड भरम सब का। देखो हूब चुका है सूरज, न जाने क्य का । शून्म भवन मे सजग सँजोयी, मैंने दीपफ वातो, इधर मेघमाला ने टैक लो है अम्बर को छाती। लुप्त हो गयी अन्धकार मे, नभ को दोपायलियाँ, निविड तिमिर मे पटी हुई है, जग-मग को गलियां । रितु तुम्ह मवेस दान-हित, मेरा घर जगमग है, आओगे तो तुम देखोगे, प्रहरी यहाँ सजग है। पयो न आज तुम लिये लघुटिया, कोच गथने आओ, क्यो न चरण प्रक्षालन हित मम दृग-झारी दुरकायो । हम विषपाया जनमक ५५