पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६११

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? सब मानो, क्षण - भर को भी तो तब विस्मरण असम्भव है 1 जीवन क्षण मे तुम न रहो, प्रिय, योलो, यह क्या सम्भव है अहो, तुम्ही ने मन बहाया मा मरयल में रस - निझर, जीवन में जो कुछ प्रसाद है, वह सब तव मधु - मादय है । मेरे रस भीने मधुराधिप, मुसकाते आ जाओ तो। मेरी इस सूनो कारा के आंगन में छा जाओ तो। कठिन शृखलाएं गायेंगीन-झन झन स्वागत - गायन एक बार सपने में हो तुम विहस छटा दिखलाओ तो। पर, अब नहीं गूंथने का में अपने आँसू की लडिया, आज नही गाने का, में, प्रिय, करुण गीत की गत कड़ियां, आज आग उगलेगे मेरी इस शकृत वीणा के स्वर मेरे नभ से खूब लगेंगी अब अगारों की अडिया। वैद्रीय वारागार, बरेली १३ नवम्बर १९४३, गणि I विस्मरण खेल ? तुम बहती हो फि में भुला हूँ वे प्यारे-प्यारे दो लोचन' ये लोचन जिनसे होता है मेरा जीवन ग्रहण-विमोचन तुम रहती हो कि मैं भुला ₹ उन भुज-लतिकाजो का क्षण? जिनके स्पक्ष मात्र से मेरे रोम रोम का होता हेपण' मुझमे खेला नही जायगा यह विस्मरण-खेल, यो मुदुले 1 पर, न खलंगा तुम्हे, समझ लो मो निरुपमे, अरी मम अतुले । हम विषपाया अनमक ५७२