पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६१४

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कितनी दूर पधारे हो प्रियतम, तुम में पूर्ण हुई थी मेरी टोह उगाँस भरी, किन्तु आज यह फिर उमहो है अति अकुलायो, प्यास भरी, ओ मेरे मघुमय रमदानी, माओ, मैरो टेर सुनो, देसी, भूने मे आयी है अमित पैदगा ग्राम मरी। यह पैसो है औच - मिचौनी है यह कैसा खेल, याहो? कहो छिपे हो मेरे जीवन ? अजी, मये क्रिस गेल, कहो ? जाने यो थे तो क्यो इतना नेह दिया इस पाचक को? अब दृग-जल बन गया प्यार वह जो तुम गये उडेल, बहीं । 'कहाँ, यहाँ हो अहो, कहाँ हो ?'-ये मेरे स्वर अकुलाये,- पे मेरे चीत्कार भरे स्वर, प्रियतम, क्या तुमको भाये? इसी लिए नया मुथै बिलखता छोड गये हो, ओ पछी ? अरे गगन • बाणो मे कह दो मत विलपो, लो, हम आये। आग निरथक-सी लगती है मुझको मम जीवन • यात्रा, और हुई है भारभूत-सो यह मेरी श्लथ तन - यात्रा, क्यो न मेज दो उस दुती को, सुम हो जिसके संग गये। भेजो वही मरण - दूतो जो लघु कर दे जीवन - यात्रा । तुम बिन इतनी गहन वेदना होगी, इसका भान न था, मेरे पास व्यथा - गहराई - सूचक कोई मान न था, तुम पकाकर चिर विछोह का मानदण्ड जब चले गये,- ता वह वात हृदय ने जानो, जिमका मुझको शान न था। हम विपपायी जनम के ५०५