पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चली आ रही हूँ ध्रुव-पग घर, बरबस खिंचती-सी निज मग पर, द्वारा चन्द्र रहित मम अम्बर, दिशा-न्य मम पन्थ विघ्न हर, आज सभी दिवशल बने हैं सुमन कली प्यारी-सो, प्रिय, मै आज भरी झारी सौ। तुम शायद सोचो हो मन मे, कौन वला भामो तम धन में, क्यो यो सोचो हो तुम प्यारे, हूक उठाकर इस जीवन म मेरी और तुम्हारी तो है युग-युग की यारी-सी, प्रिय, मै आज भरी शारी-सो। ? भूल गये क्या मुझको, साजन? मैं हूं वै एकनित रज-कण- जिनको तुमने स्वकर परस से, कभी किया था सन झन उन्मन, आज यही माटी को पुतली आयी हिय-हारी-सी, प्रिय, मै भाज भरी शारी सी? चित्रकार या अगितकुमार हाएदार के आधार पर १५ सिम्पर १९१८, रामि ८ ३६ हम विषपायो जनम के