पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६२१

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तुम हँसते से प्राण थोडी आस लगी कि पधारे तुम हंसते से प्राण, औ' निहारने लगे वेठकर मुझको, तुम रसखान । हुआ बावला-सा मन मेरा लक्ष तुमको निकटस्य, किन्तु तुम्हे जो देखा तो तुम लगे शान्त औ' स्वस्य, मैं आबुल कह उठा कि मुझको कर लो अगीकार, पर, सपने मे भो तुमने, बस, नाही नी, सुकुमार । डोली मजुल ग्रोवा, मुख से निकाले 'ना-ना' शब्द, सुन वह नही-नही मेरा हिय हुभा एक क्षण स्तब्ध, फिर सोचा प्रिय क्या देते हैं मुझे निषेध प्रसाद ? क्या यो मुझे अतीन्द्रियता का देते हे सवाद ? यदि यह तव उच्छा है तो फिर यही सही, सरकार, अच्छा है हलका हो जाये मेरा मेन्द्रिय भार । पर, मैं हूँ पृथिवी का प्राणी, मैं धरती का पूत, मेरा आराधना पूजन तो है मृत्तिका प्रसूत, मेग निपट मेदिनी-रिंगण, कैसे उडे अकास' वंगे टूटें वधन पसे हो मम नवल विकास' मै थल चारी, वही कई मैं कैसे गगन-विहार' तुम्ही कहो, रोद्रियता केस स्याएँ, प्राणाधार ? बेन्द्रीय मारागार, बरेली २३ अगस्त १९८४ ५८१ हम विपयाची जनमक