पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६२५

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उनने कहा था अजी वात कुछ यूं ही-सी है, किन्तु मैने देखा ये हैं गहरे से पानी में, उनकी कृपा थी जो थे शान्ति मुझे देते रहे, मिस्तु फुसलाता कैसे मन अभिमानी में तेल-मय हो गये कपोल के सभी ये तिल पड कर वेदना यी चेन्चरर धानी में लूटा था शायद मैंने उनका सरस मेह, किन्तु कैसे करता रहता मनमानी ? आज पूछता हूँ ओ भो यलय, विराजे पयो हो, ममिट विधान के ये जीवन - वितान तान? चिर अनुराग का मुझे क्यो अभिशाप दिया। और, उनको गयो दिया निपट विराग दान ? मुहाको अनन्य स्नेह-भाव क्यो प्रदान किया। जनको बनाया क्यो यो चचल चपल प्राण तुम तो कहोगे, यह लोला है तुम्हारी, किन्तु, लोला है नही, है यह तव प्राण-हर बान । भव कहाँ जाऊँ ? कुछ तुम्ही तो बता दो, अरे, जाऊँ कहाँ अब इस तीसरे पहर में? ऐसा लगता है मानो जीवन कटा है यूँ ही गलियो में, कचो में औ' सँकरी डगर में । यदि क्षण-भर कही रख भी चरण रके, पगडण्डो शैल उठी कर्कश से स्वर में। ग्वना मना है, मुझे, चलता जा रे नवीन, गाश्रय नहीं है तेरे लिए जग भर मे। यो गणेत पुटीर, मानपर ११ जनवरी १९४२ पर दम विषपाया जनमक