पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६२९

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दुई का सोच मैने कहा तनिक झुक आओ और इधर इस वार, अति गम्पित इस वक्षस्थल पर सिर रख लो, सरकार, खडे खडे, यो बने हुए चुत क्यो देखो हो, प्रान 2 मेरे जीवन में ठिटका दो मन्द-मन्द मुसकान । ठुमुक पधारे हो माँगन में अजब रूप वर आज, भर-भर लाये हो नयनो में स्वप्न, जागरण, लाज, सघन मेघ सम केश-पाश मे चपला से, साकार,- झूम झूम कर खूव कर रहे हैं ताटक विहार । बोलो, मालिक, क्यो न बलायें लू आकर नजदीक ? ये वोल कि चटपटी इतनी नही जरा भी ठोक, अव तो जरा होश मे आओ प्रेम नही सयोग, फिर, इतनी आतुरता? यह तो नहीं नेह को जोग। नेह निभाना है तो सौखो आत्म-विस्मरण सार, नेह निभाना है ता छोडो शारीरिया व्यापार, अपने को खो देने हो मे है सनेह का तत्व, ज्यो ही मिटो अहता त्यो ही मिटा विरह विलगत्व। जब तक हस्ती की मस्ती में शराबोर है रोह, द्वैतभाव तब तक है, चाय तक नही सनेह विदह, जब तक हैतभाव है तब तक है यह हा-हा-कार, हा-हा कार जहाँ है या फिर पौसा प्रेग - विचार हम विषपायी जनमक