पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६३०

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हममे तुममे आज भेद है, यह परदै का खेल, परदा हटते ही हो जायेगा हम - तुम मे मेल, कहाँ रहोगे 'तुम' जब होगा मोह - आयरण दूर तव तो स्वय कहोगे 'सोऽह', चमक उठेगा नूर, ? काल - उदधि में आदि - प्रेरणा पी ढेला एक- पड़ा, उसी से लहरायो हैं लहरें यहा अनेक, यही लहर - भंवरें बल खाती बनी मृष्टि का जाल, इगी जाल में उलझ गया है जोवन या जगाल। लहरें समझ रही है हम तो है सागर से भिन्न, इसीलिए तो उमड रही है वे यो निशि-दिन खिन्न हम कहते है एक रूप हो, देखो होकर शान्त, मिलनोत्सुकता से होते हो तुम क्यो यो उद्धान्त ? जब तक है यह मिलन-लालसा, तब तक यहा विछोह, केवल उस छिन तक हो तडपन है,जिस छिन तक मोह, उतर चुका जब अक्स हृदय मे तब फिर क्या सकोच ? दुई मिटी, भरमा वर आये, मिटा विरह का सोच, घी गणेश बुटौर, कानपुर २३ मतूबर १९३८ रात्रि १४० d इम विषपायी जनम के