पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फिर आ गयी दिवाली यह सुनी सी जीवन-यात्रा बनी व्यर्थ श्रमपूण, और प्रेरणा अलसायी है, है विचार भ्रमपूर्ण, मेरे हिय में आज अमा है सधन निबिड समपूण, नयनो मे है अमित तमिसा, सकल मनोरथ चण, ऐसे समय, अये, हिरनी की मदमम आखा वाली, ओ मेरी अन्तरतर-वासिनि, फिर आ गयो दिवाली। तुमने मुंद्री आँखे अपनी, बुझे दीप युग मेरे, उठ आये तम के दल वाइल, दशो दिशाएँ धेरे, प्राणों का यह कीर, कहो, विरा ज्योति-किरण को टेरे? अव क्या मम दिनमान ? और क्या मेरे साझ-सबेरे। छायी जीवन में निशीथिनी अब तो कालोनाली ओ मेरी अतर-वासिनि यो आयो आज दिवालो? श्रो गोरा कुटोर, कानपुर २५ अक्टूबर १९४६, दीपावली गागर मे सागर पैसे भरलू इस छोटी-मी अपनी गागर में सागर' से मैं नि सोम बनाऊँ अपनो यह सीमित गागर' यदि में रहने को हूँ सीमित, तो निस्सीम चाह यह नों निद्रावृत रहने को हैं, तो क्यो है मम स्वभाव जागर' इन विषपाया जनन है ५११