पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चिटा रही है मुहासा मेरे विफल प्रयलो को पति, और उलहने आज दे रही मुझको मेरी ही पाते। अनुशय छोड़ गय गैरे हिय मे एक रैस गहरी, फिर से उभर रही है हिश पर विगत दिनोमो सम बात। इतने दिवस, महीने इतने, बिता दिये चासर इतने, श्री' प्रमाद, निद्वा-आलस में गंवा दिये अवसर इतने, इतना समय विता देने पर अब असीग की चाह जगी। सोनी, नव प्रयोग करने को रहे शेप अब दिन कितने 2 यो अमाप होना नाम क्यो असीम होना चाहूँ निज अस्तिस गमलामाको अव में वयो योना चाहूँ" वन्धन ही के द्वारा मुशको यह निजत्व आभास मिला। नयो अन तता युत अनीम का बोशा में होना चाहूँ? यदि मै हूँ असीम, तो गरे बन्धन ही अनन्त होगे। मेरे निशि-दिन अकुलाने से क्या ये अन्तवन्त हागे' बबन नहीं, कदाचित हैं ये मम विकास-सोपान स्वम ! जीवन क्षण पुत् लोप हुए जो, वही अब कृदन्त होगे। यदि अन्तता आने को है, तो वह वरवस आयेगी, विमुख रहूँ, तब भी यह निज को मम सम्मुख प्रकटायेगो, मैं यो रोऊँ ? क्या अशुलाऊँ? क्यो पाल हिय मे चिन्ता? बतमान में साधा भारी निज को स्पम निभायेगी। पद्रीय कारागारौला २१ जनवरी १९८४ ५६६ हम विषपामा जनम क