पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६३६

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कागज़ की नाव हम भी अजब जन्तु है जग म रद कागज की नाव, प्रेम-समन्दर चले नांधने लगा प्राण के दाव, पेशेवर मरलाह हंस पडे यह बौडमपन देख, पर हमने दे टोप, अलापी अपने मन की टेक । दुनियादारो, तुम क्या समझो हम मस्तो का खेल शास्त्र हमारा अलग जगत् रो अग हमारी गल, सरकण्डेको डा हमारी, औ' कागज की नाव, लहर, भवर का इस सागर में हमे नही अटकाम । इन उपकरणो को ही लेकर सदियो पहले यार, जिन पगला ने किया सन्तरित यह रस पारावार, हम भी उन ही फे वशज है, फिर हम का मा सोच? कैसी झिझक ? जुगुप्सा कैसी ? क्या भय ? क्या सकोची तरल तर गित, पवन विकम्पित प्रेमाम्बुधि के बीच, वे समान धर्मा अलबेले लीक गय है खीच, अरे, आज भी दौख रहे हैं उनके वे नो पान, क्षीरोदधि में राजहस की पातो रो अम्लान । हमने भी डाली सागर में नौवा जजर क्षीण, गल जाये तो भो मया चिन्ता होगे सागर लोन, तिरती है तब तक तो उसम बैठे हम रस-खान, हो नि नक रहमे गाते पुण्य प्रेम के गान । यो गणेश पुटीर, कानपुर ३० सितम्बर १९३८ हम विपपाया जनम क ५००