पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६३७

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मैं निज भार वहन कर लूंगा मैं दुबल मन, चला सौपने अपनी पीडा तुम्हे, प्राणधन, मे आतुर जन, लौटाने को चला विगत मौवन के लघु क्षण, मैं सरलय सन, सुन जीवन के पछी के पखो को सन-सन, लगा तौलने अपने डैने करने को फिर से नभ - विचरण, किन्तु मैं स्वय समझ रहा हूँ निरा व्यथ है यह उफान, प्रिय, अब न हो सकेगी फिर सम्भव वह रति, वह गति, वह उडान,प्रिय । कैसे, कहो, डाल सकता हूँ तुम पर मै निज भार, सुनयने ? तुम मेरी मुकुमार यापना, तुम मेरी मनुहार, सुनयने, मेरे गलित, परित जीवन को परण किया कव विहंस विजय ने? और मुझे कब किया निमोहित जगत् - हाट के क्रय - विक्रय ने। मै निज भार वहन कर लूँगा, तुम चादनी वनो जीवन को। बनी हो तुम स्वरित कोकिला मेरे सूने जीवन - बन की। श्री गणदा दुटीर, पानपुर २८ अगर १९४८ विनय ये घण्टे धन-धन-धन गूंजें, आधी रात आ गयी, साजन, अभी तलक भी नहीं सुनाई दी, तुयुमार तुम्हारी पांजन, कान लगे है दरवाजे से भी आगे उस राज-माग पर, प्रति पमध्यनि पर उकर-उछल हम,रह रह जाते हैं आहे भर, ५९० इम विषपाया सनम के