पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६३८

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और सोचते है क्या हमसे चूक वन पडी है युछ ऐसी, जिससे है यह रोप, अन्यथा, यह उनकी विम्मृति है कैसी ? सुन्दर, मदिर, सुलोचन साजन | ओ हिय की निष्टा के स्वामी । आराधन के केन्द्र हमारे, ओ प्यारे मालिक | गज गामो, निपट हमारे सूनेपन को, ओ तुम मुखरित करने वाले । चिर अतृप्ति-मय रिक्त हृदय को, ओ तुम सत्वर भरने वाले। इतने युग को सतत हमारो, विकल प्रतीक्षा सफल बनाओ, एक बार आँखो से हंसते अवरो से मुसकाते आओ। किन्तु सोचते हैं हम मन मे क्या अधिकार कि तुम्हे बुलावें? एकाराषन कहाँ कि रीसे आप और अपने से आवें? व्यभिनारिणी हमारी निष्ठा, अविचारी है नेह हमारा, पर, है तव उदारता का ही, हमको केवल एक सहारा, पतित-पाननी बान तुम्हारी, तुम स्वमायत करमय हारी, तभी पुकार उठी है तुमको, बरबस यह रमना बेवारी। यदि तुम लसो हमारे अवगुण, तब ती चरण-पग्म भी दुनि, अपने बल तो न पा सकेंगे, हम तव चरणा-भी, बन, निष्ठा नही, न रच साधना, एकाग्रता नही गटी, सदाराधना नहीं कर सके, हम तर अनुकर , इस विकार-मय अन्याश्रय यी, प्रियतम दिन मिटानी, हमे उठा कर आज यव में, तुम नेपिटाया श्री गणेश मुटीर, कानपुर ४ अगस्त १९४० इम विपपायी नम