पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६४०

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वहुरंगी प्रियतम, मेरा मन बहुरगी अतिरगो मेरे सपने प्रिय, रग-विरगी मेरी दुनिया, रग-राग मेरे अपने हिय, इकरगी होने को चिन्तित मेरा बहुरंगी चचल मन, रंगो इसे नि7 अग-राग-रंग, में है मेरे मानी मन-धन । मेरे अद्भुत, निण नयनो के गरन-अरण औरो के रंग में- आज नहा लेने दो, फैले यही मदिर रैम गम अंग-अंग में । काले मेघो को अस्तगत रवि भी रक दान दे जाता, फिर तुम तो शिशु-रवि हो मेरे,-तेज पुज हो, भाग्य विधाता, तनिक चला दो वह इकरगी अपनी तूलो चपल करो से, अश्या छू दो अग-अग मम अपने रमित मृदु अबरी से, पुंछ जाये गम बहुरगीपन, मन सन्ध्या घन सा हो रजित, योर धडकते गहरे-हिय में तय अनुराग-रग ही गचित । तुम हो कोन ? कहाँ के वासी गया यह राग दिया तुम ही ने? देखो तो अब तो नम नस से उठी है स्वर भोने भीने, ओ मादक मधवा के दानी, फिरता है मन आनी-पानी, है वतुल गति-रत यह प्राणी, इसने नहीं सरल गति जानी, चक्कर के गाटे म पग, शाणित-रास-प्यास रत रग-रम, भयो न दिखाई दे फिर बोलो वहरगी जग-जीवन का मग। बमक प्रयो १५ अयस्त १९३९ हम विश्पायी पनग के ६."