पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६४५

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आस्था से शून्य है, मैं आ गया हूँ निम्न स्तर पर, मैं उमानव सा हुआ हूँ, वप रहा है हृदय थर-थर, बांधबार मातग मन जिस स्तम्भ पर, निर्धान्ति था में,- पा गया श एक आश्रय उस समय जब प्रान्त था मैं- स्तम्भ बह निकला अविर अवलम्प का आभास मेरा, चलित है विश्वास मेरा। जब पराइमुख तुम हुए, तब, हृदय मे विश्वारा भरकर,- पूछ बैठा मैं कि क्या है ? तब, हँसे तुम बाप भर-भर । और मुझसे कह उठे लो, है न कुछ भी बात सी- जो कि तव अनुरयित कापे चपल बदली पात-जैसी, फ्यो भुलावे में रखा था हृदय को सायास मेरा चलित है विश्वास मेरा। प्राण जाने दो, गला क्या रोप, मेरा मा उलहना? भाग्य म मेरे वदा है नित्य नूतन ताप सहना, किंतु इस तन सहज छल ने ममल डाला हृदय ऐसा- के अब मानव जाति के प्रति मन हुआ दिग्व जैसा, आज तो अम चक्र ही म हो रहा रम-रास मेरा, है चलित विवाग मेरा। एक दिन निज लाचनो मे पण आपण भाव भर-भर, अल्स, अम्पुट, सलग वाणी यत्नत एवत्र वर-कर- याद है ? तुमने यहा था ? -तु रहने दो स्मरण यह, हो रहा मिनि-भार से है पठिा जीथा मन्तरण यह 1 गयो न हो स्मृति प्रदा, जय है रिस्त हिय आपास मेरा? चरित है विश्वास मेरा। हम विषपापा जनमक (04