पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६४७

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सन्ध्या भारती मग्यो, सँजोती हूँ जब दीपक, तब होती गुदगुदी हिये मे, बांह झटका देते हैं में जब, भरती हूँ मै तैल दिये मे, हटो दूर' जब कहती हूँ तो और पास के भा जाते है, मुझे खीझती देख, हलसते, ये नयनो से सुसकाते है, उस पुटपुटे समय मै साजन प्यार-भरे आखो आते है, तब वे मेरे मन में आलो, एक गजब - सादा जाते है। बाह थाम, गारवार मेरे लोचन में अपने लोचन - कहते हैं देखो तो कितने सुन्दर है अति नीरप क्षण ये, तब मैं खोयी - सोयी-सी, सावी, उन्हे देखती रह जाती हूँ उनकी अपनी नेह - धार में मैं घरबस ही वह जाती हूँ। मैं वे दो ही रह जाते है उस सुछि - कुछ अंधियारे क्षण मे मुनती हूँ उनकी छाती पर गिर घर द्रुतगति हिग-पटकन में । 1 दम विपयायो नगर