पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६७१

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- लाख आँसो से परे हो पर, दरस को चिर पिपामा,- कोन यो उसता रहा है सजग घूघट में छिपा-मा ? जन्म की ओ' मृत्यु पी फाँसी गले ले जीव आया, हर्ष और विपाद का उद्गीय स्थर जग-बीच छाया, फिन्तु चेतन को सुमरनी में मरण है मेरु - मनका, तव चलित क्यो हो जगज्जन ? भ्रग न वयो मिट जाय मन का ? क्षणिक जीबन मिस पधारी जगत् में चिर चेतना यह, माग मे सिन्दूर भर लायी विरह की वेदना यह । आ मिली यो रज - कणो में बन गयी जीवन पहेली, किन्तु उसको है स्मरण कुछ, यह किसी को है सहेलो, बाध उसको या रखेगी धूलि - बाण की मोह-माया वह रखेगो क्या यहा वह है किमी को अमर छाया 1 मिट गये हैं चित्र मेरे आह । वन' - बन मिट गये हैं ये अनेको चित्र मेरे, चित्र आज अचित्र मेरे । वन्दना आराबना की कुहुक्निी कूकी कहो क्यो? और अपण-ज्वाल किसने हृदय मे पूंको कहो पयो। तब भला मम दोप क्या, जो तूलिका मैंने संभाली? वन्दना की टेक को साकार छवि मैने बना ली। वितु मै हतभाग्य हूँ, यो कह रहे है मित्र मेरे, चित्र आज अचिन मेरे। ६३२ हम विपपायी चागमक