पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६७२

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जन्म-जन्मो से रहा हूँ में कदाचित् वह निराश्रय, जो सतत शुत्-क्षाम दृग से खोजता है जोबनानय, पूछता हूँ, पन्थ मै साथी सँगानी क्या कही हैं ? संग मे तो एक मी सुकुमार चरणाकन नहीं है । क्रमित जीवन डगर मे हैं चरण विह्न विचित्र मेरे, मिट गये हैं चिन मेरे। सतत ही लगती रही आवाश नगा को पिपामा, और पख अभाव से, बुण्ठित हुई हृदयाभिलापा, गगन को कुसुमावली को तोडने वो कर पमारे, जग हँसा, वामन चला, जब स्पर्श करने चन्द्र-तारे। आज मेरी पुतलियाँ ही जा रही है आँख फेरे, मिट गये है चित्र मेरे। एक को माराधना को, एक ही को हिय यसाया, एक ही की डोर में मन-मोन को मैंने फंसाया, पर अधर में ही अटया कर रह गये है प्ररण मेरे, और अश्रुत हो रहे है हिचकियो के गान मेरे, आज मैं किसको बुलाने ? कोन मुलको आज टेरे, मिट गये हैं चित्र मेरे। श्री गणेश टोर, वानपुर १० दिगम्बर १९३१ 112 हम विषपायी जनम व ८०