पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/७०

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________________ भक्षक, नर ही स्वय बना है नर के रयत मास का प्यासा आज पुप्प-से मानव-हिम में आ बैठा है कोई तक्षया । पद्यस्विनी वसुधा रक्त-भूमि बन गयी हाय, यह मानव को, शुभः कपोत कोकिला कूजिता कहा गयी बीधी माधव को? आग उठ रही है चिल्लाहट नभ मे नाहि नाहि ॥ के रख की, स्थग-भूमि हो गयी, सखे यह मज्जास्थली घृणित रोरख यो, नर के नारकीय भावो ने जगतो में ऐसा पुल खेला कि यह विश्व बन गया निमिव मे एक भयानका मरघद - मेला। जहाँ दोडते थे पहले नर जीवन - दान मतोको वहीं आग बढते है वे ही जीवित्त चे प्राणो को लेने, दारुण हेप दृगो मे छाया, भारण भरा विचविचाहट मे, करुणा, दमा, स्नेह वत्सलता, कहाँ रहो मानय के घट में? हम विपपापी गनमक