पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/७४

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इतनी सदियों के सिरजन का हुआ जा रहा नाश क्षणो में रे नर, पया तू ने सोचा है, वया रस है इन गृह्य रणो में? वे प्रस्वेद - गणो से सिंचित सोत लहलहात प्रियदर्शन,- हुए नेस्तनाबूद क्षणो म जब यह हुआ अग्नि का वर्पण, ग्राम्य दाति-सर की लहरे वे, वह अलबेलो जीवन-रारणी,- लोहित-सी हो गयी आज क्यो ? यहा गयी यह जन-मनहरणी? हिंसा की लपटो से झुलसी नर की चिर-निर्माणवृत्ति सत्र क्षार हो रही है देसो तो भूत-दया, चिर-नेह, सुकृति, अत्र। hoy गाँव सभी वीरान हो रहे, खेत हो रहे मरघट सारे उपजाने वाले निर्माता वनते है नाशक हत्यारे, यह कैसा है पट-परिवतन ? कैसा स्वस्थ परिवर्तन कोन पतित प्रेरणा जगो जो, नरे करता यो नाशक नतन ? यह हम विषपायी जनम के ११