पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/७५

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चुका प्रामीणो का वह अलमस्त तराना मनहर, अव तो उसकी जगह सुनाई देती है चीत्कार भयकर, गाँवो नगरो की गलियो मे लगे ढेर लाशो के कितने। धूल - धूसरित है प्रासाद भव्य थे जितने, बही नालियो मे पानी की जगह उष्ण शोणित की धारा, नर, नारी, बालक, बूढो को भी न तनिक भी मिला सहारा, मानव ने अपनापन खोया उसने अपनायी दानवता, भीषण सघपण गे पड कर चकनाचूर मानवता। देखो गाएँ भयनस्ता, लिये गोद म भायी मानव जून रही हैं उसे बचाने, उनसे, जो आवे हे दानव, बाल लिमें स्तनो को मुख मे पाये अपने विशुद्ध दृग,- देख रहे हैं स्ताप चवित रो ज्यो आम्टक को घायल मृग, हम पिपायी जनम के