पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/८५

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भयो अरण्य-रोदन करते हो? व्यर्थ न अश्रु वहाओ अपने, होगे बगत आने पर तब जीवन भर के सर सपने । एक महा गानव जगती में उनिद्वित-सा ध्यान लगाये, श्रवण कर रहा था यह सब कुछ बड़े जतन से कान लगाये, सुन कर इन सब उद्गारो को तडप उठा उसना अन्तस्तल, और हो गया निमिप मात्र को कुछ विचलित-सा वह चिर अविचल, अपने अज्ञानी जन-गण के प्रति उसने कुछ ऐसे ताका, मानो लोक की सचित करुणा ने नयनो से झाका। फिर सागर - गम्भीर गिरा से उच्चारित की वचनावलिया- अथवा घृणामयी जगती को अर्पित यी सनेह अजलियाँ 'मानव, तुम ताविक हो, लेकिन तक नहीं निस्सीम अपरिमित, उसकी भी सीमाएँ है, पर, उनसे शायद तुम न सुपरिचित, ६२ हम विपपासी जनमक Site