पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/८९

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उसी 'कण्टकेनेव कण्टकार' को फिर से तुम दुहराते हो, घावो को गहरा करते हो, उन्हे कहाँ तुम सुहराते हो? अकसोरा, अरे मत कहो कि यह अहिंसा निष्प्रभ कुटी-धर्म है कोरा, इसे समष्टि देने मे मैने निज को है मेरी सत्य अहिंसा में है गति, उद्यम, बल, ओज, निराला, मे हूँ महाकान्तदीं नर, मेरी क्रान्ति निपट विकराला, शोणित-पायी इस जग-भर को देता हूँ मैं अमृत-पात्र यह, रढिवादियो को ललकारा मैंने दे फर नया शास्त्र यह, मेरे हिप-म धन से निकला यह रस रुचिर पुरातग चिर नच, जाज नये अधिकरणो में मैं जग मो देता हूँ यह आराव, कहता हूँ जब तक न बनेगा यह नर नारायण का प्रतिनिधि, तय तर व्यर्य सिद्ध होगी यह जगमोटापारी सब गति-विधि, हम विषपायी जनम के