पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/९१

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तुम जन-शोषण-उन्मूलक हो? में कब हूँ शोपण का पोषक ? पर तुम शोपक के नाश हो, मैं शोषण-भावो का शोषक, का तुम सामाजिक परिवर्तन के ही केवल रान्तत विश्वासी पर मे सामाजिक-वैययितका परिवर्तन अभ्यासी कहता हूँ सामाजिक ढाँचा बदलो, उसमें हो परिवत्तन, किन्तु साथ ही व्यक्ति-भावना मे भी हो नव जागृति-पतन, यदि न ऊध्वगामिनी बनंगी वैयक्तिक प्रवत्तिया सारी, तो सामाजिक परिवत्तन नो लग जायेगी स्वारी। केवल बाह्य उपकरण के ही नहीं बदलने के नर-नारी, उन्हे न कर पायेगो जाग्रत यह हिमा विधि मतत तुम्हारी, इसीलिए मम प्रबल अहिंसा- सत्त्व तुम्हारे साप आया, जिसरो मानव एकरूप हो भूले थपना और पराया, हम विपपायी जनम क ६5