पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/९२

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अन्तर्राष्ट्रीयता असम्भव जय तक मन में संख्यारो है, * . सामाजिक करमाण न होगी जर तक हिंसा हत्यारी है, हिंसा में विचार-मन्धन समय नही, अभ्यास नहीं है, हिमा मे सान्तता गरी दा, अनन्त अवकाश नहीं है, बिना सदाशय-मय प्रणोदना को न समुन्नत होगा मानद, कैस हिंसा से हो सकता पराभूत जन-हिय या दानव हिंसा से वह और भडक फर प्रतिहिंसक बन तन जायेगा, विना शान्ति के कंसे उसका हिय-परिवत्तन आ 7 पायेगा। निश्चय मानव-मुक्ति दयी है विकाराली टाढो के नीचे, पर वे डा. दरी हुई है लिप्सा के हाडो के नीचे जब तक लिप्सा के जवडी को बदलती है, नर- शोषण-डाको से मानवता तब तक नहीं निकलती है, नर, हम विषपायी जनम में ६३