पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/९७

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मेरी जडे गहन भावी के गभ देश लौ पैठी है, नर, में वह नहीं, उगाता है जो सरसो को कर - सम्पुट मे भर, मेरी चिर मानिनी अहिंसा नहीं पराजयबाद जन्य यह नाहा अहिंसा सवविजयिनो, कहा पराजम अति जघन्य यह सबसे वही आत्ममय जग मे, उसका यह प्रमाद दुखहारी, इसे पराजयवाद समझ कर ठुकराते हो विष्टवकारी ? सोने को समझा है माटी तुमने बिना परीक्षा के हो ? कही जाती है यो हो चिना रामीक्षा के ही कोई बात अगर अहिंसा का सामाजिक रादुपयोग है विजित - वाद हो,- तो फिर सत्य, न्याय, समम का सदाचरण होगा प्रमाद ही, तब तो हिय को सकल मधुरिमा क्षीण - शक्तता का और शक्ति का रूप भयकर दुराचरण ही दुराचरण है, हम रिपपायी उनम के ०४