पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/९८

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कैसा है यह तक जरा तो सोची-समझो अपने मन में मानो जोवन तत्त्म भरा चरम पाशविकता - गजन में? है अरे, क्या कहा? हिसामय है जनगण के शोणित के कण-कण? यदि जग हिंसागय होता तो पैसे होता उसका पोपण ? अन्म प्राणियो सा यह नर भी लुप्त हो गया होता कच का, रच पता भी कही न होता जन संस्कृति का ओं, हम सय का, हृद्गत स्नेह अहिंसा के बल, बन्चु, जी सका है अब तक नर, जीवन-धारण किये सविताशो से भी घिर कर, 1 और अहिंसा दोनो प्रकृति-सिद्ध गुण है मानव के, विप, मधु, दोनो ही निकले है मन्यन-सार हृदय-अणव एक राक्षमी क्रीडा है तो है देवत्व दिवाकर, एक निम्न गति प्रेरक है तो बना अन्य सोपान अध्यचर, दूजा हम पिपायी जनम के ७५