पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/१०५

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"इसमें मेरा क्या कसूर है। मैं... मैं! तुम से अधिक क्या कहूँ? तुम सुन्दर हो, तुम्हारी बातें भी मुझे अच्छी लगती हैं। मैं भी पुरा नहीं, लेकिन फिर लेकिन फिर और तुम्हारा वह प्यार। तुम्हारे प्यार अरे अधर मेरे अवरों पर अभी तक चल रहे हैं। क्या वह सदा चलते रहेंगे?"

फरिया ने आश्चर्य-जनक दृष्टि से देखा और कहा--'एक और प्यार तुम्हारे अधरों पर चलाऊँ। दो हो जायेंगे, तो अच्छा रहेगा।"

यह सुन कर सैय्यद ने थोड़ी देर सोचा और कहा--'मिस फरिया, तुम से एक बात पूछूँ..?"

"बड़े शोक से, एक की जगह दो पूछों, तीन पूछो; बल्कि जब तक जी चाहे, पूछते जाओ।"

"मैं पूछता है, क्या तुम से प्रेम करना जरूरी है? यानी बिना प्रेम के दोस्ती नहीं हो सकती।"

"तुम्हारा यह प्रेम अनोखे ढंग का है। प्यार के बिना दोस्ती कैसे हो सकती है और दोस्ती के विना प्यार भी तो नहीं किया जा सकता? तुम व्यर्थ की उतनों में यों ही फंस रहे हो।" यह कहते-कहते उसके कबोल लाल हो गए। वह तेज स्वर में बोली--"मैने तो कभी इस प्रकार की बातों पर कभी विचार ही नहीं किया और ऐसी बातों पर विचार ही कौन करता है? सोच-विचार के लिये और थोड़ी बातें हैं।"

"फरिया, मैं एक नए संसार की सीमा पर खड़ा हूँ। जाने से पहले मैं बहुत कुछ सोचना चाहता हूँ; किन्तु यह अजीब उलझन है कि सोच ही नहीं सकता, किन्तु मुझे विचार जरूर ही करना है, इसके बिना काम न चलेगा..?"

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हवा के घोड़े