पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/११०

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फरिया खुश-दिल थी। सुन्दरता की देवी थी और सबमे बढकर उसमें यह खूबी थी कि उसका शारीरिक प्यार ही अनोखे ढंग का था। मानो ऐसा प्यार जो सदियों में दहकते हुए कोयलों के अन्दर से दिखाई देता है। पूरे दस दिन एक साथ रहते हुए उन्हें बीत गए थे; लेकिन दोनों महसूस करते थे कि दोनों हमेशा ही से इकट्ठे रहे हैं। फरिया अपनी जिन्दगी के बारे में फिक्र नहीं करना चाहती थी। सैय्यद के दिमाग़ में ये ख्याल कभी-कभी भिनभिनाती मक्खी की तरह दाखिल होता था कि अगर मेरे किसी दोस्त या रिश्तेदार ने मुझे इस तरह देख लिया, तो क्या होगा और इस ख्याल के आते ही इसका दिमाग चक्कर खाने लगता और एक अजीब तमन्ना उसके मन में उठती थी कि सारी दुनिया कक जाए? वह खुद खामोश हो जाए और सब लोग पत्थरों की तरह बन जायें।

यह सोचता, आखिर यह क्या है? मैं जैसे भी चाहूँ अपनी जिन्दगी गुजारूँ। लोगों को इससे क्या मनलब? मैं अगर शराब पीता हूँ, तो दूसरों के बाबा का क्या बिगड़ता है, अगर मैं किसी औरत को अपने साथ रखना चाहता हूँ, तो इसमें दूसरों से इजाजत लेने का मतलब ही क्या है? क्या मुझे अपने अच्छे या बुरे का कुछ भी ख्याल नहीं?

लेकिन वे फिर उसके मस्तिष्क में इस तरह के उठने वाले सवालों पर यह ख्याल करना ही फिजूल समझता है। इसलिए कि वे समाज की खराबियों को दूर करने की बराबरी ही नहीं कर सकता था। वह एक छोटा सा आदमी था; जिसकी आवाज अकेले में भी नहीं उभर सकती थी।

फिर भी वह खुश था। बहुत खुश था, लेकिन इस खुशी के साथ-साथ यह ख्याल भी एक पहली लकीर की तरह उसके दिमाग में दौड़ रहा था कि एक दिन जरूर ही वह पकड़ा जायेगा और उसे एक दिन

हवा के घोड़े
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