पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/१३

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मकानों को छेदते हुए निकल जाती, न जाने कहाँ और स्वयं ही कह घूम-घाम कर उसके हृदय में समा जातीं। बिल्कुल उन बच्चों की तरह जो अपनी माँ की छाती पर औंधे मुँह लेटे नाक, कान और बालों से खेल-खाल कर अपने ही मुलायम हाथों को आश्चर्य-जनक दृष्टि से देखते-देखते नींद के कोमल कपोलों में धँस जाते हैं।

लतीफ़ की दुकान पर ग्राहक बहुत कम आते थे। इसी कारण वह उसकी उपस्थिति से लाभ उठाते हुए उससे कई प्रकार की बातें किया करता था; परन्तु वह सामने लटकी हुई दरी की ओर निहारता रहता, जिसमें 'रंग-बिरंगे' अनगिनत धागों के उलझाव ने डिज़ाइन बना दिया। लतीफ़ के अधर काँपते रहते और वह सोचता रहता कि उसके दिमाग़ का नक़्शा दरी के डिजाइन से किस तरह मेल खाता है? कभी-कभी तो वह सोचा करता कि उसके अपने भाव ही बाहर निकल कर इस दरी पर कीड़े के समान रेंग रहे हैं।

इस दरी में और सैय्यद के दिमाग़ में कोई अन्तर न था और था भी तो केवल इतना ही अन्तर कि रंग-बिरंगे धागों के उलझाव ने, उसके सामने, दरी का रूप धारण कर लिया। किन्तु उसके विचारों की उलझनें ऐसा रूप न धारण कर सकीं, जिसको वह दरी के समान अपने सामने बिछा कर या लटका कर देख सकता।

लतीफ़ में अशिष्टता कूट-कूट कर भरी थी। किसी से बात-चीत करने की उसे तमीज़ नहीं थी। किसी वस्तु में उसको सौन्दर्य ढूँढ़ने के लिये कहा जाता, तो वह निकम्मा और असभ्य ही साबित होता था। उसके हृदय में वह बात ही नहीं उत्पन्न हो सकी थी, जो एक कलाकार में होती है। इन सब दुर्गुणों के होते हुए भी एक लड़की उससे प्रेम करती थी, उसको पत्र लिखती थी। जिनको लतीफ़ इस ढंग से पढ़ता था, जैसे किसी तीसरे दर्जे के अखबार में युद्ध के समाचार पढ़ रहा

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हवा के घोड़े