पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/१४

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हो। इन पत्रों में वह कँपकँपाहट उसे दीख न पड़ती थी, जो प्रत्येक शब्द में होनी चाहिये। वह शब्दों के मर्म भावों से अनभिज्ञ था। यदि उससे कहा जाता, कि लतीफ़ यह पढ़ो, लिखती है, "मेरी फूफी ने कल मुझ से कहा, क्या हुआ है तेरी भूख को? तूने खाना-पीना क्यों छोड़ दिया है? जब मैंने सुना तो पता चला कि सचमुच मैं आज कल बहुत कम खाती हूँ। देखो! मेरे लिये कल शाहबुद्दीन की दुकान से खीर लेते आना...जितनी लाओगे सब की सब चट कर जाऊँगी, अगली पिछली कसर निकाल दूँगी...।" कुछ मालूम हुआ, इन पंक्तियों में क्या है?...तुम शाहबुद्दीन की दुकान से खीर का एक बहुत बड़ा दोना लेकर जाओगे, किन्तु लोगों की निगाहों से बच-बचाकर ड्योढ़ी में जब तुम उसे यह तोफ़ा दोगे, तो इस विचार से प्रसन्न न होना कि वह सारी खीर खा जायेगी। वह कभी भी नहीं खा सकेगी ..पेट भर कर वह कुछ खा ही नहीं सकती। जब दिमाग़ में विचारों की कांग्रेस का जल्सा हो रहा हो, तो पेट स्वयं ही भर जाता है, लेकिन यह उलझन उसकी ताकत से बाहर थी। वह कैसे समझ सकता। वह तो समझने समझाने से कोसों दूर भागता था। जहाँ तक शाहबुद्दीन की दुकान से चार आने की खीर और एक आने की रबड़ी और खुशबू मोल लेने का प्रश्न था, वहाँ तक लतीफ़ बिल्कुल ठीक था। खीर के लिये क्यों लिखा? और इसी भूख का प्रश्न किन विचारों के कारण उसकी प्रेमिका के दिमाग़ में उत्पन्न हुआ? इससे लतीफ़ को कोई सरोकार न था। और सच पूछो तो वह इस योग्य ही नहीं था कि इन बारीकियों की जड़ तक पहुँच सके। वह मोटे दिमाग़ का मालिक था, जो कि लोहे के ज़ंग लगे हुए गज़ से दरियाँ अनोखे ढंग से मापता था और शायद इस प्रकार के भौंड़े ग़ज से अपने विचारों को मापता होगा।

परन्तु यह सच है कि एक लड़की उससे प्यार करती थी, जो हर चीज़ में उससे बहुत ऊँची दीख पड़ती थी। लतीफ़ और उसमें केवल

हवा के घोड़े
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