पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/४४

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रंगों से जो इस राजो के जीवन में दीख पड़ते थे। इसके कोमल हृदय को धक्का सा लगता, जब वह राजो को या सौदागर भाइयों को राजो के साथ बँधा हुआ देखता, गोश्त और छेछड़ों के रूप में। इससे पूर्व भी वह कई बार इस फैसले पर पहुँचता कि राजो से उसे घृपया है...वास्तव में यह चीज़ सैय्यद को वहुत ही दुःखमय कर देती कि "राजो" को अपने आप में घृणा नहीं थी। वह अपने आप से बहुत खुश थी...।

एक बार सैय्यद मे इस प्रकार ग़लती हो गई थी। जो अधमता से भी अधिक बुरी थी किन्तु जब इसके मस्तिष्क ने इसको फटकारा तो वह कई दिनों नहीं, कई महीनों तक अपने आप से पृथक रहा। इसका विचार था कि जिस प्रकार लोग बुरे कामों पर एक दूसरे को बुरी निगाहों से देखते हैं या वैसा बुरा उनसे व्यवहार करते हैं। इसी प्रकार ऐसे मौकों पर वह अपने आप से ऐसा बर्ताव करते हैं; किन्तु राजो या तो अपने आप से बेखवर थी या इमके अन्दर वह मस्तिष्क न था, जो तराजू का काम दे सके।

इस युवती के विषय में सैय्यद ने इतना अधिक सोचा कि अब केवल विचार पर ही गुस्सा आने लगा। वह इसके विषय में सोचना नही चाहता था, इसलिए कि इसमें कोई आकर्षण शक्ति न थी, पर कुछ विचार किया जा सकता। वह अधम थी, सैय्यद उठ खड़ा हुआ, इस ढंग से राजो को अपने मस्तिष्क से झटका--"जैसे किसी घोड़े ने अपने शरीर से एक ही झर-झरी में सारी मक्खियाँ उड़ा दी हो, इसने सारी रात जागते हुए भी स्वयं को स्वयं अनुभव किया हो।"

भास्कर अपनी किरणें फैलाता हुआ, खिड़कियों, दरवाज़ों में फेंस-फेंस कर कमरे में पहुंचा और प्रकाश कर रहा था। जो बनावटी प्रतीत होता था। उसने खिड़कियाँ नहीं खोली और तिपाई के समीप जिस

हवा के घोड़े
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