पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/४६

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कह कर अपने काम में लग गई--"आपकी चाय तैयार है, माँ जी आपकी राह देख रही हैं।"

सैय्यद का मन नहीं चाहता था कि इस से बात भी की जाये; किन्तु जाने क्यों उसने पूछ लिया--"चायबनाने के लिये, इससे किसने कहा था?"

राजो ने पलट कर आश्चर्य-जनक दृष्टि से उसकी ओर देखा आपने...अभी-अभी तो आपने कहा था कि हाँ! तैयार की जाये... सैय्यद कुर्सी पर से उठ खड़ा हुआ, वगैर किसी झकझक के, उसने कभी ऐसा नहीं कहा था। प्रातः की चाय साढ़े बारह बजे कौन पीता है? अब नाश्ता करूँगा तो दोपहर का खाना शाम को खाऊँगा. और रात का खाना...राजो हंस पड़ी--"रात का खाना..प्रातः को।"

सैय्यद एक दम संजीदा हो गया और बोला--"इसमें हँसने की कौन-सी बात है? जाओ माँ जी से कह दो, मैं चाय नहीं पीऊँगा, भोजन करूँगा...भोजन तैयार है क्या?"

राजो अपने मुख पर से हँसी के उन चिह्नों को मिटाने की चेष्टा करते हुए भी न मिटा सकी। इसकी मुखाकृति इस प्रकार की थी, मानो ठंडे पानी में रंग घोल कर ऊनी वस्त्रों पर चढ़ाया जाये और वह न चढ़े। इसने धीरे से उत्तर दिया--"जी भोजन तैयार है...मैं अभी-अभी माँ जी से कहे देती हूँ कि आप चाय नहीं, भोजन करेंगे ।" यह कह कर वह जल्दी से दरवाज़े की ओर बढ़ी।

"देखो"--सैय्यद ने उसे टोक कर कहा--"मां जी से कहना कि... मैं चाय नहीं पीऊँगा, भोजन करूँगा..."मैं सारी रात जागता रहा हूँ। समझ में नहीं आता मेरी नींद को क्या हो गया था? मुहल्ले में शोर हो तो मुझे बिल्कुल भी नींद नहीं आती, रात बाहर, खुदा ही

हवा के घोड़े
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