दिगार की कसम...मरते समय मुझे 'कलमा' नसीव न हो। यदि मैं झूठ बोलूँ . यह सब झूठ है, मैं कोई ऐसी-वैसी थोड़े ही हूँ। मुझ मे अधिक काम नहीं हो सकता। इसलिए मैंने उनको छोड़ दिया। इतनी सी बात का बतंगड़ बन जाए, तो इसमें मेरा क्या कसूर।"
यह कहने के बाद, मानो इसने अपना बोझा उतार दिया और पास के कमरे से बाहर चली जाती, तभी सैय्यद ने आँखें खोलीं और पानी माँगा। राजो ने जल्दी से उसके हाथ में पानी का गिलास दे दिया और पास ही खड़ी रही, ताकि वापस लेकर तिपाई पर रख सके।
एक ही सांस में गिलास का गिलास पीने के बाद उसकी प्यास को थोड़ा बहुत सहारा मिला। खाली गिलास देकर राजो की ओर सिर उठाकर देखा। कुछ कहना चाहा; किन्तु चुप हो गया और तकिए पर सिर रखकर लेट गया।
अब वह होश में था। उसने बेतकल्लुफी के साथ राजो को पुकारा--"राजो!"
राजो ने धीरे से उत्तर दिया--"जी।"
"देखो! माँ जी को यहाँ भेज दो।"
यह सुनकर राजो ने विचार किया कि वह रात की सारी बात माँ जी को सुनाना चाहता है। तभी राजो ने फिर कसमें खाना शुरू कर दिया--"मियाँ जी कुरान मजीद की कसम, अल्लाह-पाक की कसम और कोई बात नहीं थी, मेरा उनसे केवल इसी बात पर झगड़ा हुआ कि मैं मोल की या खरीद की नहीं आई हूँ, जो सारा दिन-रात काम करती रहूँ...आपने मेरे मुंह से इसके अलावा और क्या सुना था?"