विदा कर रही थी, जैसे माँ बच्चे को स्कूल भेजती है और इसके दरवाजे मे निकलने तक कभी इसकी टोपी ठीक करती रहती या कभी कमीज के बटन बन्द करती रहती। नर्म की इस प्रेम-भरी मेवा ने उसके हृदय पर वहुत प्रभाव डाला था। यही कारण था कि वह उससे हरेक बात, हँसी के ढंग पर करता था।
जब सब कुछ ठीक-ठाक हो गया तब सैय्यद नर्स से बोला--"नर्स देखना मेरी टाई की नॉट कैसी है ?"
नर्स ने टाई की नॉट की ओर देखा; किन्तु क्षण भर में यह समझ गई कि उसके साथ परिहास हो रहा है: अपितु मुस्करा दी, बोली--"बिल्कुल ठीक है, परन्तु आप अपना शीशा यहीं भूले जा रहे है।"
यह कह कर वह कमरे की अन्तिम खिड़की की ओर बढ़ी, जिसके पास ही लोहे की आलमारी खड़ी झाँक रही थी, उसे खोल कर उसने शीशा निकाला और सैय्यद के अटैची-कैग में रख कर कहा--"आप एक चीज़ तो भूल ही गए थे ना।"
इस पर सैय्यद ने जवाब दिया--"अब मुझे क्या मालूम कि शीशा भी फलों और दूध वाली आलमारी में ही स्थान बनाएगा। मैंने तो उसे वहाँ नहीं रखा था। आपने कभी इसकी सहायता से अपने अधरों पर सुर्खी लगाई होगी और वह भी, जब मै सो रहा हूँगा।"
इस प्रकार की मज़ेदार बातों के बाद उसने डाक्टर से हाथ मिलाया और कुछ काग़जों पर हस्ताक्षर करने के बाद नर्स का धन्यवाद किया। दानपत्र में कुछ रुपथे डाल कर, कमरे से बाहर आया। जहाँ उसने पूरे १५ दिन बीमारी की हालत में काटे थे।
जब वह सड़क की और बढ़ा, तो उसने वैसे ही मुड़ कर अपने पीछे देखा; जिधर उसके कमरे की खिड़कियाँ खुलती थीं। केवल तीन बन्द