पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/७२

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मेरी ओर देखकर पागलों की तरह घबड़ाए हुए शब्दों में कहने लगी-- "समझ में नहीं आता...धन्यवाद किन शब्दों में करूं", यह कह कर उसने फिर लिखने की चेष्टा की, जो ठीक रही। बड़े सोच विचार के बाद उसने एक पत्र लिखा और लिफाफे में बन्द कर मुझे दिया और कहा कि यह उनको दे दीजिएगा। मैं यह पत्र लेकर बाहर निकला और..."

सैय्यद ने पूछा--"कहाँ है ?"

अव्वास ने बड़ी लापरवाही से उत्तर दिया--"मेरे पास हाँ तो मैने बाहर आकर लिफाफे को देखा । उस पर लिखा था प्राइवेट; परन्तु फिर भी मैंने खोल ही लिया.."

"तुमने खोल लिया ?"

"खोल लिया और पढ़कर देखा, तो मालूम हुआ कि वह आप से मिलने की उत्सुक है, पत्र का सार यही है कि मैं तुम से मिलना चाहती हूँ। मेरा मन नहीं लगता, साड़ी के लिए धन्यवाद ! मैं इसे परसों 'बाल' पर पहन कर जाऊँगी, जो छावनी में हो रहा है ।",

यह कह कर उसने जेव में हाथ डाला और लिफाफा निकाल कर सैय्यद को दे दिया, बोला--'तुम स्वयं भी पढ़ लो, शायद कुछ और न लिखा हो।"

सैय्यद ने लिफाफा खोल कर पढ़ा; वास्तव में वही लिखा था, जो अब्बास ने सुनाया था । केवल इतना ही अन्तर था कि मिस फरिया ने अंग्रेजी में चार पंक्तियाँ लिखी थी, जिन का अनुवाद कर के अब्बास ने सुनाया था...।

यह पत्र पढ़कर सैय्यद सोच में पड़गया:.. वह मुझ से किस

हवा के घोड़े
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