नहीं सकते, लेकिन उसको समझने की ही जरूरत क्या। जब तक पुचकारने पर अपनी कटी हुई दुम हिलाता रहता है और तुम्हारे कहने पर वह गेद पकड़ता है। मैं पूछता हूँ, औरत के बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत ही क्या है? अगर औरत अथाह समुन्द्र है, चाहे नीले आसमान का तारा है, इन बातो में क्या? इन बातो में क्या, जब तक वह औरत है और उन विशेषताओ से परिपूर्ण है, जो एक औरत में मोजूद होती है, केवल एक ही विषय पर विचार करना चाहिए कि उसे किस ढ़ग से पाया जा सकता है?"
यह भाषण सुनने के बाद, सैय्यद ने अब्बास से पूछा---"लेकिन औरते हैं कहा?"
अब्बास ने पकेट से एक सिग्रेट निकाली, माचिस जलाकर सुलगाते हुए उसने उत्तर दिया--"यहाँ-वहा, इधर-उधर, हर जगह पर औरते ही औरते हैं। क्या इस घर में कोई भी औरत नहीं है। वह तुम्हारी नौकरानी राजो ही क्या बुरी है? जिसने उस दिन बैठक के किवाड़, मेरे लिए ही खोले थे। तुम मेरी ओर आँखे फाड़-फाड़ कर क्यों देख रहे हो? भाई, हमे तो औरत चाहिए और राजो शत प्रतिशत औरत ही है। भले ही वह तुम्हारी नौकरानी सही, किन्तु इसमें, इसके वेशगत संस्कार की क्रिया कुछ नही बिगड़ सकती। माना कि हमारे यहाँ की औरते सन्दूक की चार दीवारी में बन्द रहकर साँस लेती है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि जो सन्दूको से बाहर हो उनकी ओर ध्यान देना ही छोड़ दे। सच तो यह है कि थाल में जो कुछ भी है, उसे खाना ही पड़ता है।"
यह कह कर अब्बास ने सिग्रेट की राख झाड़ी और अपने मित्र की ओर प्रश्न-सूचक दृष्टि से देखने लगा, यद्यपि वह देखना नहीं चाहता था। फिर भी ऐसा भास होता था, मानो सैय्यद को इस बात