इस तरह सैय्यद ने न जाने कितने ही प्रश्न फरिया से किए; किन्तु उसने एक भी उत्तर न दिया। वह दुःखी थी, इतनी दुःखी कि इसके मुख पर ठंडी छा चुकी थी; जिसे लेखनी भी लिखने से चिल्ला उठी। ऐसा मालूम होता था कि वह कोई बड़ी भारी चोट खाकर आई है। उसका रंग पीले पत्थर के समान हो गया था और उनके अधरों पर सुर्खी का पोचा फेरने के बाद भी केवल पपड़ियाँ ही नज़र आ रही थीं।
अन्त में कुछ देर के बाद इधर-उधर देखकर फरिया ने उससे कहा---"मुझे आप से बहुत सी बातें करनी हैं।" यह कहते हुए उसने ताँगे की ओर देखा, जिस में सामान भरा हुआ था, फिर बोली---"लेकिन आप अभी-अभी आए है या जा रहे हैं?"
"मुझे तो यहाँ आए आज सात दिन हो चुके हैं और अब मैं यह होटल छोड़ रहा हूँ।"
यह सुनकर फरिया का रंग और भी पीला पड़ गया। वह बोली--"बस आप घर जा रहे है?"
"नहीं, नहीं, घर तो दो-ढ़ाई महीने के बाद ही जाऊँगा। होटल का वातावरण मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा, इसलिए मैंने अलग एक कमरा किराये पर ले लिया है।"
"तो चलो मुझे भी साथ ले चलो। तुम ..।"
यह कह कर वह कुछ झेंप सी गई। बोली---"आपको यदि कुछ कष्ट न हो तो ..। बात यह है कि मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ और यहाँ होटल के सामने दो मिनट में मैं कुछ भी नहीं कह सकती।"
सैय्यद ने फरिया की ओर देखा तो उसकी मोटी-मोटी आँखों में