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पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/१०७

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के बहुत से प्राचीन ग्रंथों को देखने और सुनने का अवसर मिला । संवत् १९२९ में इनसे पंडित इंद्रनारायण शंगलू से मित्रता हुई जो बहुत ही फुशाप्रयुद्धि, कार्यपटु, नयीन विचार केतधा देश. हित करनेवाले मनुष्यों में से थे। इनके द्वारा इन्हें सभा समाज पार समाचार पत्रों से मनुराग तथा उर्दू शायरी में उत्साह बढ़ा। इन्होंके द्वारा भारतेंदु वा हरिश्चंद्र जी से चौधरी साहिब को जान पहिचान हुई जो क्रमशः मैत्री में परिणत हो गई। यह मैत्री उत्तरोचर हद होती गई पोर अंत तक उसका पूरा निर्वाह हुआ। संवत् १९३० में इन्होंने "सधर्मसभा" पार १९३१ में 'रसिक समाज" तथा यों ही फ्रमशः और कई सभाएं स्थापित को। १९३२ में इन्होंने कई कविताएं लिया पार १९३३ में इनके कई लेख कवि- पचन सुधा में छपे । वस अब तो उत्तरोत्तर कई कविताएं लिखी गई। संयत् १९३८ में पानंदकादंबनो को प्रथम माला प्रकाशित हुई और १९४९ से "नागरी नीरद" साप्ताहिक समाचार पत्र का सम्मा- दन प्रारंभ हुआ। इन दोनों पर पार पत्रिकामों में अनेक गद्य पद्या- स्मक लेख ग्रंथ इनके छपे जोकि प्रद्यापि स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित नहीं हो सके। इनकी अनेक कविताएं पौर सदग्रंथ घरं यों कहना चाहिए कि इनको कविता का उत्तमांशअभी तक इन पत्र मौरपत्रिकाओं तक भी न पहुंच सका। इनको केवल वही कविता प्रकाशित हो सकी जो समय के अनुरोध से अत्यावश्यक जान पड़ो और चट पट निकल गई जैसे "भारत सौभाग्य' नाटक, "हार्दिक हर्षादर्श" "भारत वाई" "पाभिनन्दन" इत्यादि अथवा जो बहुत आग्रह की मांग के कारण लिखी गई यथा “वर्षाविंदु" या "कजली कादं- बिनो" | इसका कारण यह था कि इनकी कविता का उद्देश्य प्रायः निज मन का प्रसाद मात्र था इसीसे ये उसके प्रचार वा प्रकाशित करने के विशेष प्रयासी न हुए और न इसके द्वारा धन मान या 9