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पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/१४

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( ३ ) जोका पक्ष निवाहा । इनका मंतव्य था "जिसका खाना उसका शिमले से आकर राजा साहिब ने कुछ दिन काशी में कमिश्नर हब के मोरमुंशी का काम किया परंतु विद्या-विषयक रुचि के जार सरकार ने उन्हें स्कूलों का इंस्पेकर नियत कर दिया । इंस्पेकृरी में राजा साहिब ने मातृभाषा हिंदी का जो उप- किया उसके लिये हिंदी बोलनेवाले को उनका कृतज्ञ होना ए । उस समय शिक्षा विभाग में मुसलमानों का प्रावल्य था वे चाहते थे कि हिंदी का पठन पाठन ही उठा दिया जाय, र उर्दू फारसो रहे । अँगरेज़ भी इस विषय में सहमत थे के हिंदी में तब तक कोई ऐसी पुस्तकें न थीं जो स्कूलों में जा सकें। परंतु राजा साहिब ने हिंदी का पक्ष प्रतिपालन पीर स्वयं उसमें अनेक ग्रंथ रच कर उक्त प्रभाव को दूर 1 पार भाषा की शिक्षा को स्थिर रक्खा। उन्होंने साहित्य, रण, भूगोल, इतिहास आदि विषयों पर सब मिला कर कोई पुस्तकें लिवों । आप घाबू हरिश्चंद्र के विद्या गुरु थे। सन् १८७२ ई० में उन्हें सी० एस० आई० को उपाधि मिली सन् १८८७ में घंश परमरा के लिये "राजा" को पदयो प्राप्त प्रापका देहांत ता.२३मई सन् १८९५ ई० को काशी में दुमा।