सन् १८८३ ई० में पेशकार के पद पर नियत होकर इनकी प्राजा गढ़ से मिर्जापुर को बदली हो गई। यहां इन्होंने सन् १८२३ त बड़ी योग्यता से काम किया। मिर्जापुर में ही इन्होंने चंगविजेता भाषानुवाद करके उसे छपवाया और स्त्री का परलोक वास जाने पर सन् १८८४ ई० में अपने उत्तराधिकारी स्वरूप अपन ( ३२ ) इन्हें तुरंत १०००६० दिप पार ये दो एक मित्रों के साथ कलम को चले गए। यहां से कुछ किराना आदि परीद कर लाप," इनका व्यापार चला नहीं। इसलिये इन्हें विवश होकर १६) मासिक पर हरिश्चंद्र स्कूल में नौकरी स्वीकार करनी पड़ी। सन् १८७१ में राजा शिवप्रसाद की सहायता से बाबू गदाब सिंह बंदोबस्त-विभाग में नौकर होकर कानपुर को चले गए । या रह कर इन्होंने पहिले पहिल हिंदी में कादम्बरी उपन्यास लिया जिस कुछ भाग हरिश्चंद्र चंद्रिका में प्रकाशित हुआ और फिर सन् १८८ में यह पुस्तकाकार प्रकाशित हुई । सन् १८७४ में बंदोबस्त काम समाप्त हो जाने पर ये आज़मगढ़ में कानूनगो नियत हुप कुछ दिनों के बाद कोर्ट आफ यार्डस् में नियत होकर ये जौनपुर राजा के यहां आए, पर थोड़े ही दिनों में फिर अपने पद आज़मगढ़ को वापस चले गए। वहां इन्होंने सन् १८८३ तक का किया और इसी बीच में दुर्गेशनंदिनी का भाषानुवाद किया । आर्यभाषा पुस्तकालय को स्थापित किया । सन् १८९० तक यह पुस्तकालय मिर्जापुर में रहा, परंतु सन् के अंत में इन्होंने बनारस आकर इसे हनुमान सेमिनरी पर के प्रबंध में छोड़ दिया। इसी बीच में इनकी इटावे को बदलो गई पार यहा न रहने के कारण इनके प्यारे पुस्तकालय के बदले पयनति होने लगी। इन्होंने इटावे में छः वर्ष काम : की उप्रति
पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/६४
दिखावट