पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/६५

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( ३ ) पार उधेलो, रोमन-उर्दु की पहिली किताब पौर भगवद्गीता ये तीन ग्रंथ लिखे। लगातार बहुत दिनों तक कार्य करने से व्यथित होकर वया अपने पुस्तकालय की स्तिथि सुधारने की इच्छा से इन्होंने दो पर्प को ही ली पीर सन् १८९६ १० के जुलाई मास में ये धनारस को चले पाए । यहाँ सन् १८९३ ई० में काशी नागरीप्रचारियो सभा स्थापित हो चुकी थी और सन् ९५ से आप उसके एक सभ्य भी थे। प्रस्तु, जब इन्होंने सभा का उचित प्रबंध देखा तो अपना आर्य- भाषा पुस्तकालय सभा को समर्पण कर दिया जो मय तक उसकी रक्षा में उन्नति कर रहा है। मरने के पहिले इन्होंने अपनी सय सम्मति पुस्तकालय के नाम लिख दी थी। पर मुकदमे के चलने से यह सब उसोम समाप्त हो गई। काशी में पाकर भी इन्होंने दो एक ग्रंथ लिये परंतु इनका सब से उत्तम पार प्रतिम लेप ऐतिहासिक पार पायक पिपरय की एक आयरी धो परंतु पक्ष पपूरी हो रह गई। पार गदाधरसिंह का देहांत २९ जूलाई सन् १८५८ कर हुमा । ये एक स्वच्छ भार उदार स्पभाप के पुरष थे तथा उप अभिलाषी पर देशहितपी पार मातृभाषा के सपं प्रमो धे।