पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/८२

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हो दिनों में गाढ़ी मित्रता हो गई, वस इनकी दिन रात वहाँ बैठक को हिंदी भाषा के तत्त्व समझाए और इस ओर हमारे वित (४२) माहनलाल जी के पिता ने इन्हें पूर्ण रूप से शिक्षा देने के प्रम- प्राय से पनारस को अपनी यदली करवा लो प्रार यहाँ नियत कर से रहने लगे। तय माप भी यनारस में प्राकर क्योंस कालेज पंटूसलास में भर्ती हो गप, परंतु कुछ उइंडस्वभाव होने के कारण इनसे पार इस स्कूल के हेड मास्टर पंडित मयुराप्रसाद मिश्र सेन पटो। इसीलिये इन्होंने जयनारायण कलेज में अपना नाम लिख- याया परंतु यहां अधिकतर लड़के बंगाली थे इसलिये इन्हें विक्स हो कर दूसरी भाषा बंगला लेनी पड़ी। यथासाध्य चेष्टा करने पर भी जय पाप दूसरी भाषा में वार यार फेल हुए तब आपने स्कूल तो डोड़ दिया परंतु खानगी तौर पर लिखने पढ़ने का अभ्यास न छोड़ा। मोहनलाल जो के पिता महाजनी काम काज के बाद बाबू हरि- श्चंद्र जी के घर भी जाया पाया करते थे। इसीसे इनका भी वहाँ जाना आना होने लगा पार इन दोनों समवयस्क युवानों में थोड़े रहने लगी । बाबू साहिब के यहां जो विद्वान पंडित लोग पाते और शास्त्रगर्भित बातों पर वाद विवाद करते उन्हें भाप भी ध्यान पूर्वक सुनते और मनन करते। आपका कथन है कि हिंदी भा' के अद्वितीय पंडित पार तुलसीकृत रामायण के मर्मज्ञ पंडित येचा राम जी भी प्रायः बावू साहिब के यहाँ आते थे। उन्होंने हम दोन आकर्पित किया। फिर क्या था हम लोगों ने परस्पर इस बात के सौगंद कर ली कि परस्पर हिंदी भाषा के सिवाय दूसरी भाषा व्यवहार कदापि न किया जाय । फारसी और उर्दू को जानते हैं भी हम लोगों ने उस ओर से अपना मन मोड़ लिया।