में खड़े हो जाइए,इस टापू की एक एक अंगुल भूमि दिखाई
पड़ेगी। जन-रव है कि एक बार महाराज वीरसिंहदेव चतु-
भुजजी के मंदिर का दर्शन कर सम्मुख के द्वार पर खड़े बेतवा
की तरंग-माला देख रहे थे, इतने में उनको अनायास एक
ग्रामीण युवती दिखाई पड़ी। यह युवती अपने सिर पर एक
डलिया लिए दूसरे तट से आ रही थी। ज्योंही नदी की एक
धार मँझियाकर टापू के तट पर पहुँचो, त्योंही वह प्रसव-
पीड़ा से विकल होकर सिर से डलिया उतार वहीं बैठ गई
और मूछित हो गई। थोड़ी देर पीछे वह फिर विकल होकर
रो उठो। दयालु वीरसिंहदेव यह कौतुक देख ही रहे थे।
उनको प्रगट हो गया कि वह नवलबाल प्रसव-पीड़ा से विकल
है। महाराज ने उसी समय राजमंदिर में जा परिचारिकाओं
को इसलिये भेजा कि वे उस निस्सहाय युवती की रक्षा करें।
परिचारिकाओं ने जाकर उसे सँभाला और वहीं उसके पुत्र का
जन्म हुआ। महाराज वीरसिंहदेव ने उसे तुरंत पाल की पर
बालक सहित उठवा मँगाया और बड़े प्रेम से उसकी रक्षा
और सेवा कराई। अंत में उसे उसके पति को सौंप दिया
और प्रस्थान के समय उसे बहुत सा धन, रत्न, वस्त्रादि दे अपनी
बेटी कह दिया । वह युवती ब्राह्मण वर्ण की थी। सती ब्राह्मणो
उनको बहुत आशीर्वचन कहती अपने पति के घर गई । राजा
के इस दयासंपन्न कार्य की ख्याति फैल गई। कहते हैं कि जब
महाराज उस ब्राह्मणी को प्रस्थान करा रहे थे, तब एक महात्मा
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