पाकर राजा के सम्मुख खड़े हो गए और बोले "राजन् ! तेरा
यह पुण्यकार्य तेरे सब पुण्यकार्यों से गुरुतर है, यह टापू सिद्धा-
श्रम है और तूने भी यहाँ पर महायज्ञ किया है। यदि तू यहाँ
पर अपना राजमंदिर तथा कोट बनवावेगा तो तेरा आतंक
वहाँ पर बैठ आज्ञा करने से दिन दूना रात चौगुना बढ़ता
जायगा।" सिद्धवचन सिर पर धर राजा ने उसी समय वहाँ
राजमंदिर प्रादि बनवाना प्रारंभ कर दिया। कहते हैं कि जब
किले के लिये टापू में नींव खोदी जा रही थी, तब एक मठ
भूमि के भीतर दिखाई पड़ा जब वह खोला गया तब एक
और सिद्धजी के दर्शन हुए, जिन्होंने यही आदेश किया कि
मेरा मठ ज्यों का त्यों ही बंद करके ऊपर से अपना कोट बना
लो। राजा ने वैसा ही किया और कुछ काल में काट बनकर
प्रस्तुत हो गया। महाराज के कोट के भीतर ही और बहुत
से कार्यालय बन गए और ओड़छा राजसभा के प्रवीण सभा-
सदों के सुयश की सुबास दूर दूर तक फैलने लगी। महाराज
और उनके सहोदर इस अपने सौभाग्य को परिपूर्ण देख फूले
नहीं समाते थे।"संसार परिवर्तनशील है ", महाराज को
यह बात भी भली भाँति ज्ञात थी कि मध्याह्न के पश्चात् साँझ
होती है। शरीरधारी एक न एक दिवस मृत्यु का ग्रास होता
ही है। कवींद्र केशवदासजी से महाराज ने स्पष्ट शब्दों में एक
बार कह ही डाला कि हमारी जीवन-संध्या होने का समय अब
निकट आ चला, इसका तो मुझे कुछ शोक नहीं है, परंतु जब
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