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पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/८३

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जब यह ध्यान आता है कि मृत्यु के प्रचंड बवंडर के झोंके से उड़ बालू के कणों की भाँति यह मंडली भी तितर बितर हो जायगी तब आँखों के सम्मुख अंधकार सा छा जाता है और चित्त शोकाकुल हो उठता है, क्योंकि ऐसा समाज अब जन्मां- तर में भी मिलना कठिन प्रतीत होता है। गुरुवर, क्या आपके शास्त्र कुछ ऐसा उपाय है जिससे यह समाज अधिक काल तक स्थिर रह सके ? कबोंद्र ने उत्तर दिया कि राजन् ! उपाय तो अवश्य है परंतु बहुत दुःखप्रद है। समस्त सभा यदि एक बार ही आत्मसमर्पण कर दे तो यह समाज प्रेतयोनि में एक सहस्र वर्ष तक स्थित रह सकता है । राजा ने उपाय से सहमत हो कृत्य का विधान पृछा । कवींद्र ने प्रेतयज्ञ का विधान कहा। राजा ने यज्ञ के लिए प्राज्ञा दी। तुंगारण्य पर वेत्रवती- तट के दक्षिण और प्रेतयज्ञ के लिये वेदी रची गई और वहीं पर सब सभा प्रेतयज्ञ में आत्मसमर्पण कर भस्मीभूत हुई । मेरे अनुमान में यह ठौर महाराज वीरसिंहदेव के समाधि- मंदिर के पास कहीं पर होगा। प्रेतयज्ञ हुआ तो तुंगारण्य में ही; परंतु ठीक चिह्न अनिश्चित है।। महाराज के भस्मी- भूत होते ही ओड़छे के भाग्य ने पुनः पलटा खाया । काल- चक्र किसी और ही गति पर घूमने लगा और महात्मा सूर- दासजी का वाक्य "सबै दिन जात न एक समान" यहाँ पर


  • इसका सविस्तर वृत्तांत जानने के लिये प्रेतयज्ञ नामक नाटक देखिए।

+कोई कोई प्रेतयज्ञ का स्थान सिंहपौर के निकट बताते हैं।