पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०४ हिंदी भाषा . (५) ओं-यह अर्धचित्त दीर्घ पश्च वृन्ताकार पर है। प्रधान स्वर औं से इसका स्थान कुछ ऊँचा है। इसका व्यवहार भी व्रजभाषा में हो मिलता है। उदा०-चाओं, ऐसों, गर्यो, भयो। ओ से इसका उधारण भिन्न होता है इसी से प्रायः लोग ऐसे शब्दों में 'श्री' लिख दिया करते हैं। (६)ओ-यह अर्धसंवृत हस्व पश्च वृत्ताकार स्वर है। प्रधान स्वर ओ की अपेक्षा इसका स्थान अधिक नीचा तथा मध्य की ओर झुका रहता है। प्रजमापा और श्रवधी में इसका प्रयोग मिलता है। पुनि लेत सोई जेहि लागि अर ( कवितावली, बालकांड,४), श्रोहि फेर विटिया (अवधी चोली)। (७) श्रो-यह अर्धसंवृत दीर्घ पश्च वृत्ताकार स्वर है। हिंदी में यह समानाक्षर अर्थात् मूलस्वर है। संस्कृत में भी प्राचीन काल में श्रो संध्यवर था पर अब तो न संस्कृत ही में यह संध्यतर है और न हिंदी में। . उदा०-श्रीर, श्रोला, हटो, घोड़ा। (5) उ--यह संवृत हस्व पश्च वृत्ताकार स्वर है। इसके उच्चा- रण में जिह्वामध्य अर्थात् जीम का पिछला भाग फंठ की ओर काफी ऊँचा उठता है पर दीर्घ ऊ फी अपेक्षा नीचा तथा श्रागे मध्य की ओर भुका रहता है। उदा०-उस, मधुर, तु । (६) उ.--यह जपित हव संवृत पश्च वृत्ताकार स्वर है। हिंदी की कुछ बोलियों में 'जपित' अर्थात् फुसफुसाहटवाला उ भी मिलता है। उदा०-७० जात्उ., ७० श्रावत् अव० भो । (१०) ऊ-यह संवृत दीर्घ पश्च वृत्ताकार स्वर है। इसका उच्चारण प्रधान स्वर ऊ के स्थान से थोड़े ही नीचे होता है। इसके उच्चारण में हस्व उ की अपेक्षा श्रोठ भी अधिक संकीर्ण (वंद से) और गोल हो जाते हैं। उदा०-ऊसर, मूसल, भालू ! (११) ई-यह संवृत दीर्घ श्रम स्वर है। इसके उच्चारण में जिह्वान ऊपर कठोर तालु के बहुत निकट पहुँच जाता है तो भी वह प्रधान स्वर ई की अपेता नीचे ही रहता है, और होठ भी फैले रहते हैं। उदा०-ईश, अहीर, पाती। .