पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१२३

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१२१ हिंदी का शास्त्रीय विकास द्वयोष्ठय उच्चारण भी उसी काल में प्रचलित हो गया था और श्राज तक चला जा रहा है। इस प्रकार परवर्ती संस्कृतकाल में सोमव के दो उच्चारण प्रचलित थे पर प्राचीनतर वैदिककाल में उसमें स्वरत्व अधिक था। इ भी पीछे सोम ध्वनि हो गई जिससे 'य' के स्थान में Zh ज़ के समान ध्वनि चैदिक काल में ही सुन पड़ने लगी थी। . अनुस्वार का घेदिक उच्चारण भी कुछ भिन्न होता था। श्राज अनुस्वार का उच्चारण प्रायः म अथवा न के समान होता है पर प्राचीन वैदिक काल में अनुस्वार स्वर के पीछे सुन पड़नेवाली एक अनुनासिक श्रुति थी। इसका विवार वैदिक भाषा में अधिक होता था पर आजकल उसका विचार अनुनासिक व्यंजनों के अंतर्गत मान लिया गया, है। (वैदिक के बाद मध्यकालीन भारतीय आर्य-भापा के दो प्रारंभिक रूप हमारे सामने आते हैं। लौकिक संस्कृत और पाली। लौकिक संस्कृत उसी प्राचीन भापा का ही साहित्यिक रूप था और पाली उस प्राचीन भापा की एक विकसित चोलो का साहित्यिक रूप। हम दोनों की ध्वनियों का दिग्दर्शन मात्र करावेगे। पाणिनि के चौदह शिव सूत्रों में बड़े सुंदर ढंग से परवर्ती साहित्यिक संस्कृत की ध्वनियों का वर्गी- करण किया गया है। उसका भाषा-वैज्ञानिक क्रम देखकर उसे घुणा- परन्यायेन बना कभी नहीं कहा जा सकता। उसमें भारतीय वैज्ञानिकों का तप निहित है। वे सून ये है- १-अइउण -ममन २-ऋत्लक -चढध ३- एमोङ १०-जयगडदश ४-ऐौच ११-खफछठथचटतव ५--हयवस्ट . १२-कपय १३-शपसर ७--अमडएनम् १४-हल पहले चार सूत्रों में स्वरों का परिगणन हुआ है। उनमें से भी पहले तीन में समानाक्षर गिनाए गए हैं। (१) अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ,ल, ए, ओ-ये ग्यारहों वैदिक काल के समानाक्षर हैं; परवर्ती काल में श्र का उच्चारण संवृत होने लगा था और ऋतथा ल का प्रयोग कम और उच्चारण संदिग्ध हो चला था। (२) चौथे सूत्र में दो संध्यनर आते हैं। ऐ, श्री। (३) पाँचवें और छठे सूत्रों में प्राण-ध्वनि ह और चार अंतःस्थ वर्णो का नामोइश मिलता है। अ, इ, उ, ऋ, ल के क्रमशः बरावरी