पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१२५

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हिंदी का शास्त्रीय विकास . १२३ गया था ( तेपां हस्वाभावात्)। पाली के बाद हस्व ऐशो प्राकृत और अपभ्रंश में से होते हुए हिंदी में भी आ पहुँचे हैं। इसी से कुछ लोगों की कल्पना है कि हस्व ऐ श्री सदा योले जाते थे पर जिस प्रकार पाली और प्राकृत तथा हिंदी की साहित्यिक भाषाओं के व्याकरणों में हस्व ए ओ का वर्णन नहीं मिलता उसी प्रकार वैदिक और लौकिक संस्कृत के व्याकरणों में भी ऐशो का हस्व रूप नहीं गृहीत हुआ, पर यह उच्चारण में सदा से चला आ रहा है। व्यंजन . पाली में विसर्जनीय, जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय का प्रयोग नहीं होता। अंतिम विसर्ग के रथान में श्री तथा जिह्वामूलीय और उपध्मा- नीय के स्थान में व्यंजन का प्रयोग पाया जाता है। जैसे-सावको, दुक्ख पुनप्पुर्नम् । अनुस्वार का अनुनासिक व्यंजनवत् उच्चारण होता था। पाली में श, प, स तीनों के स्थान में स का ही प्रयोग होता था। पर पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में तीनों का प्रयोग मिलता है। परवर्ती काल की मध्यदेशीय प्राकृत में अर्थात् शौरसेनी में तो निश्चय से केवल स का प्रयोग होने लगा। . संस्कृत के अन्य सभी व्यंजन पाली में पाए जाते हैं। तालव्य और ची स्पों का उच्चारण-स्थान थोड़ा और श्रागे बढ़ पाया था। पाली के काल में ही वर्ण्य वर्ण अंतर्दत्य हो गए थे। तालन्य स्पर्श-वर्ण' उस काल में तालु-यत्र्य घर्प-स्पर्श वर्ण हो गए थे। तालव्य व्यंजनों का यह उच्चारण पाली में प्रारंभ हो गया था और मध्य प्राकृतों के काल में जाकर निश्चित हो गया। अंत में किसी किसी श्राधुनिक देश-भापा के प्रारंभ-काल में वे ही तालव्य च, ज दंत्य धर्प-स्पर्श ts, ds और दंत्य ऊष्म स, ज हो गए। प्राकृत ध्वनि-समूह पाली के पीछे की प्राकृतों का ध्वनि-समूह प्रायः समान ही पाया जाता है। उसमें भी ये ही स्वर और व्यंजन पाए जाते हैं। विशेषकर शौरसेनी प्राकृत तो पाली से सभी बातों में मिलती है। उसमें पाली के (ड़,द भी मिलते हैं। पर न और य शौरसेनी में नहीं मिलते। उनके स्थान में ण और ज हो जाते हैं।